IJFANS International Journal of Food and Nutritional Sciences

ISSN PRINT 2319-1775 Online 2320-7876

अर्वाचीन संस्कृत-साहित्य की भूमिका

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-डॉ॰ मुकेश कुमार शर्मा

Abstract

राजकीय संस्कृत महाविद्याल्य फागली 'अभिनव संस्कृत काव्यशास्त्र' का निर्माण प्रतिभाशाली तथा बहुश्रुत आचार्यों के एक समवाय द्वारा कराया जाय और बाद में पुनः कुछ सर्वमान्य श्रेष्ठ सूरियों द्वारा परीक्षित करा कर उसे लोकार्पित किया जाय नये संस्कृत काव्यशास्त्र की संभावना के द्वार अभी भी खुले हैं। जिन काव्यतत्त्वों की स्फुट एवं पृथक् मीमांसा आचार्यों द्वारा अपने काव्यसिद्धान्तों के आलोक में, शताब्दियों के अन्तर से की गई है, उनका विवेचन एक ही सर्वमान्य काव्यात्मतत्त्व के आलोक में, युगपत् होना है। भंग, भंगी, भंगिमा, प्रौढि, वैदग्धी, शय्या, मुद्रा, वक्रोक्ति, रमणीयता, चमत्कार, पाक, विच्छत्ति, स्फोट, ध्वनि, अलोक-सामान्य, लोकोत्तरवर्णना, लोकातिक्रान्तगोचरता जैसी पदावलियों की सापेक्ष व्याख्या होनी है। अलंकार सम्बन्धी पूर्वाचार्यों के नामरूपात्मक विवादों की समीक्षा कर, उन्हें अन्तिम रूप देना है। रसध्वनि के रूप में ध्वनिसम्प्रदाय में भी मूर्धाभिषिक्त, रसवाद के विरुद्ध उठी आपत्तियों की समीक्षा कर, नये सिरे से उसकी प्रतिष्ठा करनी है। अर्वाचीन संस्कृत नवलेखन की उपन्यास, कहानी, एकाङ्की, यात्रावृत्त, दैनन्दिनी तथा गीतादि विधाओं तथा वैदेशिक प्रतिमानों पर प्रणीत संस्कृत की हाइकूँ, सीजो तथा सॉनेट, गजल प्रभृति काव्यकृतियों की गुणदोष समीक्षा कर उन्हें परिभाषित करना है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि सम्भूत (पूर्व प्रतिष्ठित) काव्यशास्त्र से ही ये सम्भावनाएँ प्रकट होंगी क्योंकि संभवनीयता के बीज सम्भूति में ही सुरक्षित रहते हैं।

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